सन 2007 तक मैं एक डेंटिस्ट के रूप में प्रैक्टिस किया करता था| मेरे सुपर-स्पेशलिटी क्लीनिक में गांव का एक पेशेंट आया|
मैंने मरीज की जांच कर दवाई लिख दी और वो चला गया| कुछ महीने बाद वो फिर जांच के लिए आया| जांच के बाद उसने हाथ जोड़कर सस्ती दवाई लिखने के लिए निवेदन किया| उसने कहा कि पिछली बार दवा बहुत महंगी थी और मुझे मेरी पत्नी के कान के झुमके गिरवी रखने पड़े थे| यह कडवी सच्चाई है कि जब गांव वालों के घरों में बीमारियां आती है तो अक्सर इनका बर्तन और जेवर गिरवी रखा जाता है|
मैंने उसकी पुरानी पर्ची अर्थात प्रिस्क्रिप्शन देखकर कहा कि ये तो बहुत ही सस्ती दवाई है।
उसने बताया “नहीं साहब! 1000 रुपए से ज्यादा लगा. सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि सन 2000 में ₹1000 से ज्यादा की दवा ऐसे मरीज को मैं कैसे दे सकता था| मुझे लगा कि मेडिकल स्टोर वाले से कोई चूक हुई है| मैंने मेडिकल वाले से पूछा तो उन्होंने मुझे दिखाया कि दवा वाकई महंगी थी।
मैं सोच में पड़ गया कि मुझसे यह गलती कैसे हुई| मुझे याद आया कि जब दवा प्रतिनिधी उस दवा के बारे में बता रहा था तो मैंने दवा की कीमत पर ध्यान नहीं दिया था| वो नयी और महंगी दवा थी|
मैंने मेडिकल स्टोर वाले से पूछा कि “यदि यह दवा जो मैंने सोची, वही लिखी होती तो कितने की आती?
उसने कहा “जो हजार-बारह सौ की आई है, वह महज़ 100 या 150 रु की आती”
अब मैं मन में सोचने लगा कि क्या करूँ? मरीज को पता नहीं था कि उसके साथ गलत हुआ है और वो धन्यवाद दे रहा था कि मैंने उसको ठीक कर दिया है| वह बस सस्ती दवा की विनती कर रहा था|
मेरी अंतरात्मा मुझ से सवाल कर रही थी कि उसकी क्या गलती है| कुछ सोच विचार के बाद मैंने उसे अन्दर बुलाया और उस दवा में उसके जितने एक्स्ट्रा पैसे लगे थे, वह वापस करने का प्रयास किया| उसकी आँखों से आंसू गिरने लगे और उसने कहा “आपने तो मुझे ठीक किया है, आप मेरे लिए भगवान् के सामान हैं, मैं ये पैसे नहीं ले सकता|”
मैंने उसे समझाया कि उसकी बीमारी सस्ती दवा से भी ठीक हो जाती और ये एक्स्ट्रा पैसा मेरी गलती का है| मुझे अपनी अंतरात्मा को भी जवाब देना है| उसके बार-बार मना करने पर भी मैंने उसे जबरदस्ती पैसे देकर भेज दिया|
जब घर गया तो नुकसान पर खुद से नाराज भी था क्योंकि उस समय १००० बड़ी रकम थी लेकिन मन के किसी कोने में खुशी भी थी| घर गया तो मेरे दादाजी ने मुझे देखा और पूछा, “क्या बात है मुंह उतार कर क्यों बैठा है?”
मेरी अंतरात्मा मुझ से सवाल कर रही थी कि उसकी क्या गलती है| कुछ सोच विचार के बाद मैंने उसे अन्दर बुलाया और उस दवा में उसके जितने एक्स्ट्रा पैसे लगे थे, वह वापस करने का प्रयास किया| उसकी आँखों से आंसू गिरने लगे और उसने कहा “आपने तो मुझे ठीक किया है, आप मेरे लिए भगवान के सामान हैं, मैं ये पैसे नहीं ले सकता|”
मैंने उसे समझाया कि उसकी बीमारी सस्ती दवा से भी ठीक हो जाती और ये एक्स्ट्रा पैसा मेरी गलती का है| मुझे अपनी अंतरात्मा को भी जवाब देना है| उसके बार-बार मना करने पर भी मैंने उसे जबरदस्ती पैसे देकर भेज दिया|
जब घर गया तो नुकसान पर खुद से नाराज भी था क्योंकि उस समय १००० बड़ी रकम थी लेकिन मन के किसी कोने में खुशी भी थी| घर गया तो मेरे दादाजी ने मुझे देखा और पूछा, “क्या बात है मुंह उतार कर क्यों बैठा है?”
तो मैंने कहा, दादा जी- “बिना मतलब हजार रुपए का फटका लग गया”
उन्होंने मुझसे सारा किस्सा सुना और भीतर जाकर मुझे हज़ार की जगह ग्यारह सौ रूपये लाकर दिया| मुझसे कहा कि “बेटा आज मैं बहुत खुश हूँ कि तू डॉक्टर के पहले एक इंसान बन गया और उस इस इंसानियत और चरित्र पर तुम्हें जीवन भर गर्व होगा| उस दिन से मैंने कभी एथिक्स और अखंडता को नहीं छोड़ा| ऐसे विचार और किस्से रोम रोम में इतने ज्यादा समा गए कि एक दिन हॉस्पिटल छोड़कर दुनिया को राह दिखने निकल पड़ा|
सोचिये, जीवन में जब आगे पहुँच जायेंगे तो अपने बच्चों को, समाज को और टीम को चालाकी की कहानियाँ सुनायेंगे या ऐसे किस्से | सबके जीवन में एथिक्स, अखंडता और सिद्धांतों की कहानियाँ होनी चाहिए ताकि आपको जन्म पर गर्व हो| यदि ऐसी कहानियाँ नहीं है, तो पैदा कीजिये क्योंकि बाकी सारी कहानियाँ समय के साथ महत्वहीन हो जायेंगी|
हमने उज्जवल पाटनी यूट्यूब कम्युनिटी में एक पोल डाला जिसमें हमने कुछ उद्योगपतियों के नाम देकर पूछा कि इनमें से कौन आपके रोल मॉडल है?
90% लोगों ने श्री रतन टाटा को अपना रोल मॉडल माना और हजारों लोगों ने उस पोल में हिस्सा लिया|
आखिर क्यों श्री रतन टाटा का नाम सुनते ही सम्मान और विश्वास पैदा हो जाता है क्योंकि उन्होंने जीवन उच्चतम एथिक्स और अखंडता के साथ जिया है| यदि आप जीवन में वास्तविक वी आई पी बनना चाहते हैं तो मेरी ये 4 सीख हमेशा याद रखिये:
बड़ा बनने के लिए बुरा बनने की जरुरत नहीं है |
जब भी जीवन में दुविधा में हो, अंतरात्मा की सुनो|
ऐसे काम करो जिन्हें दूसरों के बीच बताने में शर्मिंदगी ना हो|
सही करना हो तो नजदीक के लाभ की जगह दूर का फ़ायदा सोचिए।
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